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History of the India-Israel Relations
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कैसे इज़राएल और भारत के बीच बढ़ी नज़दीकियाँ? | How Israel Helped India In Kargil War?

कैसे इज़राएल और भारत के बीच बढ़ी नज़दीकियाँ? | How Israel Helped India In Kargil War? 

History of the India-Israel Relations
History of the India-Israel Relations

 साल  1948 में भारत और पाकिस्तान का फॉर्मेशन तो दुनिया पहले ही देख चुकी थी लेकिन इस साल जिस देश की चर्चा दुनिया भर में थी वो था इजराइल इसको बनाने के लिए जहां एक तरफ फिलिस्तीन के दो भाग  हो रहे थे वहीं यूनाइटेड नेशंस में जब इसके लिए वोटिंग हुई तो भारत उन देशों की कतार में खड़ा था जो फिलिस्तीन को सपोर्ट कर रहे थे यहां हमारे देश ने ना केवल इजराइल के बनने का विरोध किया बल्कि वो एक अकेला ऐसा नॉन मुस्लिम देश था जो फिलिस्तीन से याराना दिखा रहा था जबकि इजराइल को तो वो देश मानने तक को भी तैयार नहीं था खुद नेहरू इजराइल के खिलाफ अरब देशों की हक की बात कर रहे थे मगर इसके उलट आज इजराइल और भारत एकदम बेस्ट फ्रेंड्स की तरह दिखते हैं दोनों के बीच दोस्ती ऐसी है कि एक दूसरे की मदद के लिए वो हमेशा तैयार रहते हैं।

 ऐसे में सवाल यह उठता है कि इन दोनों देशों के बीच रिश्तों में इतना जमीन आसमान का फर्क क्यों दिखता है?  जिस देश को भारत कभी मान्यता तक नहीं देना चाहता था आज वो इसका इतना सगा कैसे है? दोनों के रिश्तों की आखिर असल सच्चाई क्या है?

  साल 1948 एक वक्त था जब नेहरू इजराइल के बनने के पक्ष में बिल्कुल नहीं थे इसको लेकर उनका ओपिनियन इतना स्ट्रांग था कि अल्बर्ट आइंस्टाइन की भी वह सुनने को तैयार नहीं थे। आइंस्टाइन ने खुद नेहरू जी को लेटर लिखकर रिक्वेस्ट की थी कि वह यहूदियों के साथ हुए अत्याचारों को मद्देनजर रखते हुए इजराइल के बनने के पक्ष में वोट करें लेकिन सभी रिक्वेस्ट को उन्होंने सिर्फ यह कहकर दरकिनार कर दिया कि अरब देशों के लोगों का क्या होगा। जाहिर है इसके बाद से तो भारत का इजराइल के पक्ष में खड़ा होना मुमकिन नहीं था तो फिर इनके रिश्तों की शुरुआत कहां से हुई।

 इन दोनों देशों के रिश्तों की शुरुआत हुई थी 1950 से इस साल भारत ने अपने स्ट्रांग स्टैंड से हटकर यहूदियों के बसाए देश इजराइल को मान्यता दे दी थी हालांकि इसके कई साल बाद तक इन दोनों देशों के बीच कोई बातचीत नहीं हुई लेकिन 1953 में इजराइल ने मुंबई में अपना पहला काउंसलेट खोला बावजूद इसके भी भारत के रिश्ते फिलिस्तीन से ही ज्यादा करीब रहे इसी का नतीजा यह रहा कि 1974 में भारत ने फिलिस्तीन की एक लिबरेशन ऑर्गेनाइजेशन को मान्यता दे दी जिसके लीडर यासिर अराफात हुआ करते थे इंदिरा गांधी को वो अपनी बहन मानते थे जबकि अटल बिहारी वाजपेई तक से उनके बेहद गहरे संबंध थे ।

 भारत ,इजराइल के ऊपर फिलिस्तीन को ही मान्यता देता था और इसकी एक वजह यह भी थी कि भारत अरब देशों से दुश्मनी नहीं मोल लेना चाहता था। इजराइल से करीबी का मतलब हो सकता था कि अरब देशों से दूरी और ऊपर से भारत इस स्थिति में नहीं था कि वह मुस्लिम देशों से लड़ सके, इसके अलावा नेहरू का मानना था कि धर्म के आधार पर किसी भी देश का बंटवारा गलत है और एक ऐसे देश को वह मान्यता नहीं देना चाहते थे।

1962 INDIA CHINA WAR:

  1962 में जब चाइना ,अक्साई चीन में भारत को आंख दिखा रहा था और इतनी करीबी के बाद भी अरब देशों ने ना तो भारत को कोई समर्थन दिया और ना ही कोई मदद की पेशकश की, मुश्किल की इस घड़ी में दोस्त बनकर जो देश हमारे सामने खड़ा था वो था इजराइल इसने तब भी पुरानी बातों को बुलाकर भारत को मदद की पेशकश की यह पहला मौका था जब नेहरू ने इजराइल के प्रधानमंत्री डेविड बेन गुरियन को पत्र लिखकर हथियार और गोला बारूद की मांग की थी और साथ में यह भी कहा था कि जहाज पर इजराइल का झंडा ना लगाया जाए क्योंकि इससे अरब देशों के साथ भारत के संबंधों को नुकसान हो सकता है। बेन ने भारत के साथ सहानुभूति जताई लेकिन तब उन्होंने मदद करने से इसी रीजन के चलते मना कर दिया था ऐसे में नेहरू को उनकी बात माननी पड़ी इजराइल ने मदद के तौर पर भारत को उपकरण दिए जिससे भारत 1962 का युद्ध लड़ पाया हालांकि इस युद्ध में भारत को जीत नहीं मिली लेकिन उसे यह समझ में आया कि वॉर के लिए उसे खुद तैयार रहना होगा।

 1965 और 1971 में भी भारत को अरब देशों का साथ नहीं मिला जबकि भारत उनके करीबियों में था।  उस मुश्किल दौर में भी इजराइल ने भारत को मिलिट्री हथियार उपलब्ध कराए जिस तरह से हो सकता था इजराइल ने उस तरह से भारत की मदद की।

  इसने ऐसा क्यों किया तो वह इसलिए क्योंकि पाकिस्तान एक मुस्लिम देश था जो ईरान के करीब था और इजराइल से उसकी बिल्कुल नहीं बनती थी बस इसी चीज का फायदा उठाकर भारत ने इजराइल से इस युद्ध में मदद मांगी फ्रांस में भारत के राजदूत डीएन चटर्जी ने इजराइल से बातचीत शुरू की और कहा कि इजराइल से मिलने वाली कोई भी मदद चाहे वह हथियार तेल या पैसे की हो भारत के लिए बहुत जरूरी साबित होगी उस वक्त इजराइल के प्रधानमंत्री गोल्डा मेयर थी तब भी भारत के साथ हालांकि उनका कोई करीबी रिश्ता नहीं था और उनके खुद के देश में भी इक्विपमेंट्स की शॉर्टेज चल रही थी लेकिन भविष्य में भारत का महत्व समझते हुए उन्होंने इस डील के लिए भी हामी भर दी और ईरान को दिए जाने वाले हथियारों को भारत को देने का फैसला लिया उन्होंने इंदिरा गांधी के लिए तब एक सीक्रेट तार भेजा और उसमें लिखा, कि हमें विश्वास है कि वह हमारी मदद का महत्व समझें इस युद्ध के बहाने से हालांकि भारत और इजराइल के रिश्तों की नीव पढ  गई थी लेकिन कमाल था कि इसके बाद भी दोनों देशों में कुछ सालों तक कोई पॉलिटिकल और डिप्लोमेटिक टॉक्स नहीं हुए इजराइल की तरफ हमारे रुख को बदलने की मुहिम शुरू हुई ।

1977 में जब इंदिरा गांधी को हराकर मुरारजी देसाई सत्ता में आते हैं तब उनकी तरफ से इजराइल के साथ बेहतर संबंध बनाने की कोशिश शुरू हुई उस समय इजराइल के रक्षा मंत्री कई सीक्रेट ट्रिप पर भारत भी आए थे और तब भारत में रह रहे यहूदियों की तरफ से भी इजराइल के लिए कुछ आवाजें उठती थी लेकिन सही मायने में इजराइल और भारत 1992 में एक स्ट्रांग बॉन्ड क्रिएट कर पाए जब पीवी नरसिंह राव देश के प्रधानमंत्री बने और उन्होंने पूरी तरह से इजराइल के साथ राजनीतिक संबंध बनाने की शुरुआत की यही वजह रही कि 1992 में भारत में इजराइल का दूतावास खोला गया।

कारगिल WAR: इजराइल और भारत की दोस्ती

 1997 में इजराइल के राष्ट्रपति एज विचमन भी पहली बार भारत आए थे तब उन्होंने भारत के राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा उपराष्ट्रपति के आर नारायणन और प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा से मुलाकात की थी मगर असल में इन दोनों देशों के बीच की दोस्ती गहरी  होने की शुरुआत अटल बिहारी वाजपेई के जमाने में हुई।और ऐसा भी इसलिए हो पाया क्योंकि 1998 में जब भारत ने न्यूक्लियर टेस्ट करके दुनिया को अपनी ताकत दिखा दी थी तो दुनिया भर के देश भारत के खिलाफ हो गए थे आलम तो यह था कि अरब देशों से लेकर अमेरिका, कनाडा और फ्रांस तक भारत के खिलाफ थे।

 एक तरफ तो सब भारत को क्रिटिसाइज कर रहे थे वहीं दूसरी तरफ दुनिया भर के सैंक्शंस भारत के माथे पर लगा दिए गए थे इन सब में जब भारत के साथ कोई नहीं था तब इजराइल उन कुछ चंद देशों में से था जिसको भारत के न्यूक्लियर टेस्टिंग से कोई प्रॉब्लम नहीं थी ।अमेरिका का सहयोगी होने के बावजूद इजराइल ने भारत की निंदा नहीं की थी बल्कि उसने डिफेंस से जुड़े मामलों में भारत की मदद ही की ।

कुल मिलाकर एक लंबे समय तक भारत से रिस्पांस ना मिलने के बाद भी यह देश भारत के करीब आता गया और इसी का नतीजा यह रहा कि कारगिल युद्ध में इजराइल भारत का एक बड़ा सेवियर बनकर सामने आया दरअसल साल 1999 में अटल बिहारी वाजपेई और भारत जब पाकिस्तान के साथ शांति मुहिम में लगे थे तब पाकिस्तान ने भारत के पीठ पर छुरा घोपा और छुपते छिपाते पाकिस्तानी सोल्जर्स एलओसी पार करके भारत के कारगिल क्षेत्र में घुस गए और 130 इंडियन पोस्ट पर कब्जा जमा लिया।

 इसकी खबर लगते ही भारतीय सैनिकों ने भी रिटेलियट किया और कुछ ही दिनों में यह कॉन्फ्लेट कारगिल वॉर में बदल गया दोनों देशों के बीच शुरू हुई इस लड़ाई में जहां पाकिस्तान डिफॉल्टर था वहीं युद्ध जब अपने फुल स्केल पर पहुंचा तो भारत को मिलिट्री इक्विपमेंट्स की जरूरत पड़ गई युद्ध में जैसे-जैसे दिन गुजरे वैसे-वैसे प्रॉब्लम्स बढ़ रही थी और ऐसे में जो देश भारत की मदद को तैयार था वो था इजराइल हालांकि इजराइल पर लगातार अमेरिका और दूसरे देशों की तरफ से दबाव डाला जा रहा था कि वह भारत और पाकिस्तान के युद्ध के बीच मदद ना करें लेकिन जब भारत ने इजराइल का रुख किया तो इस देश ने अपना वो हर एक्सपीरियंस भारत के साथ शेयर किया जो हमारे देश के काम आ सकता था ।

दरअसल इतनी बार अरब देशों से लड़ने की वजह से इजराइल का प्लस पॉइंट यह था कि इनके पास बॉर्डर पर कंट्रोल काउंटर अटैक्स और लिमिटेड वॉर को लेकर अच्छा खासा एक्सपीरियंस था ऐसे में उसने अनुभव अपने शेयर किए, इतना ही नहीं भारत को बेहतर क्वालिटी के मोटर एम्युनेशन सप्लाई भी किए साथ ही फाइटर जेट्स के लिए लीजर गाइडेड मिसाइल्स भी इजराइल ने ही मुहैया कराई जिससे फाइटर जेट्स के टारगेट करने की एक्यूरेसी में सुधार हुआ इजराइल की तरफ से भारत को हीरोन और सर्चर अनमैंड एरियल व्हीकल भी दिए गए जिससे हाई एल्टीट्यूड पर भारत दुश्मन की बेहतर सर्विलांस कर पाया।

भारत और इजराइल के बीच बढ़ते  रिश्ते :

 मुश्किल दौर में इजराइल की इस मदद ने भारत और इजराइल के रिश्तों को और मजबूत कर दिया था और इतने बड़े सपोर्ट और हमारी पावरफुल आर्मी का ही नतीजा रहा कि भारत युद्ध जीत गया और उसने पाकिस्तान को मुंह तोड़ जवाब दिया इसके बाद तो जैसे इजराइल और भारत के रिश्तों को बढ़ाने से कोई नहीं रोक पाया आलम यह रहा कि साल 2000 में गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी इजराइल गए थे और ऐसा करने वाले व पहले भारतीय मंत्री थे फिर साल 2003 में पहली बार भारतीय विदेश मंत्री जसवंत सिंह इजराइल गए इससे पहले भारत का कोई विदेश मंत्री इजराइल नहीं गया था इसी साल 2003 में इजराइल के प्रधानमंत्री एरियल शेरोन भारत आए थे और ऐसा करने वाले वह पहले इजराइली प्रधानमंत्री थे ।

बढ़ती हुई इस दोस्ती में 2008 में जब मुंबई पर हमला हुआ था तब भी इजराइल ने अपनी टीम भेजने और दुश्मनों के खिलाफ चल रही लड़ाई में साथ देने की बात की थी इसके बाद भी वह लगातार आतंक के खिलाफ भारत के साथ खड़े रहने की बात करता रहा इन सबके बीच 2015 में राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी देश के पहले राष्ट्रपति बने जिन्होंने इजराइल का दौरा किया दोस्ती धीरे-धीरे बढ़ती रही इसके बाद

 साल 2017 में पीएम नरेंद्र मोदी इजराइल के दौरे पर गए और इजराइल का दौरा करने वाले भारत के पहले प्रधानमंत्री बने इस दौरान बेंजामिन नेतनयाहू के साथ वो कदम ताल करते दिखे तो सारी दुनिया को इस दोस्ती की बारीकी का पता चली फिर फरवरी 2018 में इजराइल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतनयाहू भारत की यात्रा पर आए थे इस दौरान उनके साथ 130 डेलिगेट्स थे और यह अब तक का सबसे बड़ा डेलिगेशन था ऐसे में तब पीएम मोदी खुद प्रोटोकॉल्स तोड़कर उन्हें रिसीव करने के लिए एयरपोर्ट पहुंचे थे।

 इसे तो इजराइल ने भी स्वीकार किया था कि पहली बार भारत और इजराइल के संबंधों की गहराई को सार्वजनिक तौर पर दुनिया ने देखा है मनमोहन सिंह की अगुवाई वाली यूपीए सरकार भारत इजराइल के बीच रक्षा सहयोग और रणनीतिक भागीदारी पर ज्यादा बात करने से बचती थी इसके बजाय यूपीए सरकार ने दोनों देशों के बीच कृषि, विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में सहयोग पर फोकस किया और इसीलिए दोनों देश इतने क्लोज आ पाए कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि दशकों में भारत और इजराइल की दोस्ती काफी ज्यादा डेवलप हुई है ऐसा कहा जा सकता है कि एक वक्त तो वो भी था जब भारत इजराइल को देश ही नहीं मानना चाहता था और एक वक्त आज का है जब हमारे बेस्ट फ्रेंड की लिस्ट में एक नाम इजराइल का आता है हालांकि बात जब भी इजराइल फिलीस्तीन की आती है तो भारत बीच भवर में फंस जाता है ।

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