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BIOGRAPHY

स्वामी विवेकानंद Complete BIOGRAPHY In Hindi

स्वामी विवेकानंद Complete BIOGRAPHY In Hindi

स्वामी विवेकानंद का जन्म कलकत्ता के शिमला मोहल्ले के प्रसिद्ध दत्त परिवार में हुआ। उनका घर का नाम था नरेंद्रनाथ दत्त। उनके दादा दुर्गा चरण दत्त एक प्रतिभा संपन्न व्यक्ति थे। वे फारसी तथा संस्कृत भाषाओं में पारंगत थे और कानून में भी उन्हें बड़ी रूचि थी। पर 25 वर्ष की आयु में अपने पुत्र विश्वनाथ के जन्म के बाद उन्होंने घर बार त्याग कर संन्यास ले लिया।

स्वामी विवेकानंद के पिता विश्वनाथ दत्त भी हृदय और मस्तिष्क के कई गुणों से विभूषित थे। जीस कारण वे सभी के लिए आदर के पात्र थे। वे अंग्रेजी और फारसी भाषाओं में दक्ष थे। बाइबल के अध्ययन में उनकी बड़ी रूचि थी और फारसी कवि हाफिज के शेर उन्हें बहुत पसंद थे। कानून को उन्होंने व्यवसाय के रूप में ग्रहण किया और कलकत्ता के हि कोर्ट में वे सफल अटॉर्नी बन गए।

उनके हृदय में गहरी करुणा थी और वे अत्यंत सहानुभूति संपन्न थे।बहुधा उनकी दानशीलता में किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं रहता था।विश्वनाथ संगीत के बड़े प्रेमी थे और उनका कंठ स्वर बहुत अच्छा था। उन्होंने नरेंद्र नाथ को संगीत के अध्ययन के लिए प्रवृत किया क्योंकि वे संगीत को निर्दोष आनंद का साधन मानते थे।

भाग्यवर्ष विश्वनाथ को ऐसी पत्नी मिली जो सब बातों में उनके ही सम्कक्ष थी।वे एक अत्यंत बुद्धिमती महिला थीं और उनकी भव्य गरिमा और तेजस्विता को देखकर ऐसा लगता था कि मानो वो किसी राजवंश की हैं।जो भी उनके संपर्क में आता वे उसी के आदर और श्रद्धा की पात्र बन जाती और समस्त उल्लेखनीय बातों में उन्हीं का निर्णय मान्य होता।

समस्त दशाओं में भगवान की इच्छा पर पूर्ण समर्पण, शक्ति और गाम्भिय इस हिंदू सनारी की विशेषताएं थी। निर्धन और असहाय जन, उनकी कृपा के विशेष पात्र थे। उनकी स्मरण शक्ति अपूर्व थी और उन्हें रामायण एवं महाभारत महाकाव्यों के जिनका की वे नित्य पाठ करती थी, लम्बे लम्बे उदधरण कंठस्थ थे।

ऐसे माता पिता से सोमवार 12 जनवरी 1863 ईस्वी को नरेंद्र नाथ का जन्म हुआ।जो आगे चलकर स्वामी विवेकानंद बने, जिनका डंका संसार में बजा और जिन्होंने भारत के लिए महिमा और गरिमा से भरे एक नए युग का सूत्रपात किया। शिशु के चरित्र गठन एवं मानसिक विकास में माता का प्रभाव सदैव सर्वाधिक रहता है।नरेंद्र नाथ बाद में बताया करते थे की कैसे उन्होंने कुछ अंग्रेजी शब्द सबसे पहले अपनी माता से सीखे और किस प्रकार उनके शिक्षत्व में उन्होंने बांग्ला वर्णमाला पर अधिकार प्राप्त किया। उनकी गोद में बैठकर सर्वप्रथम उन्होंने रामायण और महाभारत की कहानियों सुनी।श्रीराम के जीवन ने उनके शिशु मानस को मुग्ध कर दिया। उन्होंने सीताराम की मिट्टी की बनी युगलमूर्ति खरीद ली और पुष्पादी से उसकी पूजा करने लगे।

 

कभी कभी राम के स्थान पर शिव नरेंद्र नाथ के इष्ट बन जाते तथापी रामायण का उन पर सर्वाधिक प्रभाव था और जब भी पड़ोस में रामायण का पाठ होता वे अवश्य वहाँ उपस्थित रहते। कभी कभी श्री राम के जीवन के रोमांचक प्रसंगों में वे इतने तन्मय हो जाते की घर बार सब कुछ भूल जाते।

 

नरेंद्र को जैसा की अब उन्हें पुकारा जाता। ध्यान का खेल बहुत पसंद था।यद्यपि वो खेल ही था, तथापि कभी कभी वो उनकी गहरी आध्यात्मिक भावनाओं को इतना जगह देता की वे बाहरी संसार को भूल कर बेहोश से हो जाते। 1 दिन ऐसे ही ध्यान के खेल में घर के एक निर्जन कोने में बैठकर वे इतने तन्मय हो गए कि स्वजनों को दरवाजा तोड़कर कमरे में घुसना पड़ा और उन्हें प्राकृतिक करने के लिए उन्हें जोरों से हिलाना पड़ा।

जब भी कोई साधु उनके दरवाजे आता, नरेंद्र प्रसन्न हो जाते और घर में जो भी हाथ लगता वो लाकर उसे दे देते। रात में सोते समय नरेंद्र को एक विचित्र अनुभव हुआ करता। ज्यों ही वे अपनी आंख बंद करते कि वे अपनी बहो के बीच विभिन्न रंग बदलता हुआ एक अद्भुत आलोक बिंदु देख पाते जो धीरे धीरे बढ़ता और फुट जाता तथा उनके समस्त शरीर को अपने शुभ्र तेज से नहला देता।

 

उनका मन जब इस घटना में लगा रहता तो शरीर निद्रा मग्न हो जाता। ये उनके लिए नित्य की बात थी।और उनकी ऐसी धारणा थी कि ये घटना सभी के लिए स्वाभाविक है। पर ये तो उनकी महती आध्यात्मिक संभावनाओं की सूचक थी।तथापि, उनके चरित्र का एक दूसरा भी पक्ष था।

नरेंद्र नाथ बचपन में बड़े नटखट थे और उन्हें संभालना बहुत कठिन कार्य था। उनकी देखभाल के लिए दो दाईयों की आवश्यकता होती थी। नरेंद्र अत्यंत ही चंचल थे और बहुदा अनियंत्रित हो जाते।

इस संदर्भ में उनकी माता कहाँ करती मैंने शिव जी से एक पुत्र के लिए प्रार्थना की थी और उन्होंने अपना भूत भेज दिया। वे बड़े शरारती थे। वे अपनी बहनों को बहुत तंग करते थे और जब वे पीछा करतीं तो खुली नाली में घुस जाते और मुँह बना बनाकर उन्हें चिढ़ाया करते क्योंकि उनकी बहनें नाली के पास तो नहीं जा पाती थी।

घर की एक गाय उनके खेल की साथिन थी और उन्होंने बहुत से पशु पक्षी पाल  रखे थे। जिनमें एक बंदर था, एक बकरा और एक मोर, कुछ कबूतर थे तथा दो तीन सफेद चूहे।

नौकरों में कोचवान उनका विशेष मित्र था और उनकी बचपन की महत्वाकांक्षा थी। सहीस बनना, उनकी दृष्टि में सिर पर फेटा बांधे और गाड़ी चलाते समय हाथ में चाबुक चमकाता। सहीस एक बड़ा भव्य व्यक्ति था।

छह वर्ष की आयु में नरेंद्र को प्राथमिक शाला में भेजा गया। पर शालाओं में विचित्र संघी साथियों से मिलन अनिवार्य सा हो जाता है। अतः कुछ दिनों में ही नरेंद्र ने ऐसे शब्द सीख लिए जिससे परिवार की शालीनता विचलित हो उठी। इसलिए उन्हें शाला जाने से रोक दिया गया और घर पर ही उनके लिए एक शिक्षक नियुक्त कर दिया गया। जल्दी ही अपने अध्ययन में नरेंद्र उल्लेखनीय बुद्धि का परिचय देने लगे। उन्होंने लिखना और पढ़ना सीख लिया। जबकि दूसरे लड़के वर्णमाला से ही कुश्ती लड़ रहे थे।

नरेंद्र की स्मृति भी विलक्षण थी। उन्हें केवल शिक्षक को पाठ पढ़ाते ही सुनना पर्याप्त था। सात वर्ष की आयु में उन्होंने मुग्ध नामक संस्कृत व्याकरण को कंठस्थ कर लिया। साथ ही रामायण और महाभारत के लंबे लंबे उदधरणों को भी सात वर्ष की आयु में नरेंद्र ने पंडित ईश्वर चंद्र विद्यासागर द्वारा स्थापित मेट्रोपॉलिटन इन्स्टिट्यूशन में प्रवेश लिया।

उनके शिक्षक और सहपाठी तुरंत उनकी अपूर्व बुद्धिमत्ता के कायल हो गए पर नरेंद्र इतने चंचल थे कि उनके बारे में कहा जाता है कि वास्तव में वे कभी अपने डेस्क पर बैठ नहीं पाते थे।वे अपने साथियों के बड़े प्रिय थे। अपने मित्रों में सदैव नेता रहते।

उनका प्रिय खेल था राजा और दरबार।

एक कमरे की सीढ़ियों की सबसे ऊपर की पौड़ी ही उनका राज्य सिंहासन थी। नरेंद्र वहाँ विराज जाते। किसी को इनके बराबर के स्तर पर बैठने नहीं दिया जाता था। वहाँ बैठकर वे अपने प्रधानमंत्री, प्रधान सेना नायक, सूबेदारों और अन्य अधिकारियों की नियुक्ति करते तथा उनके पदों के अनुसार उन्हें सीढ़ियों पर बैठने का आदेश देते। वह एक दरबार लगाते और शाही गरिमा के साथ न्याय प्रदान करते। यदि आज्ञा का तनिक भी उल्लंघन होता तो अस्वीकार पूर्ण दृष्टि से उसका निराकरण कर दिया जाता। जब वे खेलते तो खेल में मानो प्राण आ जाते ,विद्यालय में जब कक्षाएं मध्याह्न भोजन के लिए बंद होती तो वे सबसे पहले भोजन समाप्त कर खेल के मैदान में भाग जाते।

नए खेल उन्हें सदैव मुग्ध कर लेते और अपना एवं अपने मित्रों का मनोरंजन करने के लिए वे स्वयं ही नए नए खेलों का अविष्कार करते। बहुदा लड़कों में विवाद की नौबत आती तो वे समझौते के लिए नरेंद्र के पास ही पहुंचते। कभी कभी तो नरेंद्र कक्षा को ही खेल का मैदान बना लेते।

यहाँ तक की जब कक्षा चलती रहती तो वे अपने मित्रों को घर में की गई शरारतों के किस्से अथवा रामायण एवं महाभारत की कथाएं सुना कर उनका मनोरंजन किया करते। एक बार कक्षा में नरेंद्र अपने मित्रों से बात कर रहे थे कि शिक्षक ने अचानक उन लोगों से उस पाठ को दोहराने के लिए कहा जिसे वह पढ़ा रहे थे। अन्य सब लड़के तो चुप हो गए, किंतु नरेंद्र में मन को दोहरा करने की सामर्थ्य थी। इसलिए वे लड़कों का मनोरंजन करते हुए भी पाठ को सुनने में समर्थ थे। उन्होंने शिक्षक के द्वारा किए गए सभी प्रश्नों का सही उत्तर दे दिया।

तब शिक्षक ने पूछा कि बीच में कौन बातें कर रहा था? इस पर जब लड़कों ने नरेंद्र की ओर इशारा किया तो शिक्षक को विश्वास ना हुआ।कहना ना होगा कि ऐसे विद्यार्थी से पेश आना शिक्षकों के लिए बड़ा कठिन कार्य हो जाता है।

एक घटना नरेंद्र की दुर्दमनीय साहसिकता और अंधविश्वास के प्रति उनके गुस्से को प्रकट करती है। नरेंद्र नाथ का एक मित्र था। उसके घर के अहाते में एक पेड़ था। नरेंद्र की उस पेड़ पर चढ़ने की आदत थी। ना केवल वे उस पर से फूल तोड़ते बल्कि उसकी डाल से उल्टा लटक जाते और झूले के समान झूलते रहते और बाद में जमीन पर कूद पड़ते।

उनकी ये हरकतें उस घर के एक बूढ़े और क्षीण नेत्र बाबा को पसंद ना थी। उन्होंने नरेंद्र को इस कार्य से विरत करने के विचार से डराते हुए कहा कि पेड़ पर ब्रह्म राक्षस रहता है और जो पेड़ पर चढ़ते हैं, वो उनकी गर्दन मरोड़ देता है। नरेंद्र ने चुपचाप सुन लिया पर ज्यू ही बूढ़े बाबा नजरों से ओझल हुए कि उन्होंने फिर से पेड़ पर चढ़ना शुरू किया।

उनका मित्र वही खड़ा था, उसने भी बूढ़े बाबा की बात सुनी थी और उस पर उसका पूरा विश्वास हो गया था। अतएव उसने नरेंद्र को ऊपर चढ़ने से मना किया। पर नरेंद्र उसकी गंभीर मुख मुद्रा को देखकर हंस पड़े और बोले। तू भी कैसा भोंदू है रे? यदि बूढ़े बाबा की भूत वाली बात  सच होती तो भूत ने मेरा गला कब का मरोड़ दिया होता।

नरेंद्र सबके प्रिय थे। मोहल्ले के धनी, निर्धन, उंच, नीच सभी परिवारों के साथ उन्होंने कोई ना कोई सम्बन्ध स्थापित कर लिया था। यदि उनके परिचितों में से किसी लड़के के यहाँ किसी की मृत्यु हो जाती तो उसे सांत्वना देने में वे ही पहले रहते थे। उनकी हाजिर जवाबी और शरारत हरेक का मनोरंजन करती और कभी कभी तो गंभीर स्वभाव वाले बड़े बूढ़े भी हंसते हंसते लोटपोट हो जाते।

नरेंद्र को किसी भी प्रकार का संकोच छूना गया था और वे सभी जगह घुल मिल जाते थे। उनको निरसता से चिढ़ थी। उन्होंने एक नाटक कंपनी गठित की और घर के बड़े पूजा कक्ष में वे नाटक खेला करते। फिर उन्होंने घर के आंगन में एक व्यायामशाला प्रारंभ की, जहा उनके मित्र नियमित रूप से कसरत करने आते।

ये कुछ समय तक मज़े से चलता रहा और 1 दिन उनके चचेरे भाई ने अपना हाथ तोड़ लिया। इसके बाद से नरेंद्र अपने मित्रों के साथ एक पड़ोसी की व्यायामशाला में जाने लगे और वहाँ तलवारबाजी, लाठीचालन, कुश्ती, नौका चालन और अन्य खेलों की शिक्षा लेने लगे। एक बार तो वे एक सामूहिक व्यायाम प्रतियोगिता में पहला पुरस्कार भी छीन ले गए। जब इन सबसे उनका मन ऊब गया तो अपने घर में वे मैजिक लान्टन की सहायता से तस्वीरें दिखाने लगे।

इसी समय उनके मन में पाक विद्या सीखने का विचार आया और उन्होंने अपने साथियों को इस बात के लिए राजी किया कि वे यथाशक्ति इस योजना की पूर्ति के लिए धन संग्रह करें। उन्होंने स्वयं खर्चे का एक बड़ा भाग अपने जिम्मे लिया। वे प्रधान रसोइए बने और दूसरे लोग उनके सहकारी।

यद्यपि बालक नरेंद्र नाथ शरारत करने में बड़े आगे थे पर उनमें अशुभ का कोई स्पर्श ना था। उनकी सहज प्रवृति संसार के छद्म पूर्ण तरीकों से उन्हें सर्वदा दूर रखती। सत्यवादिता उनके जीवन की रीढ़ की हड्डी थी। भले ही दिन में वे विभिन्न खेलों और हास्य विनोदो में मग्न रहते, पर रात में उन्होंने ध्यान करना शुरू कर दिया की जल्दी ही उन्हें कुछ अद्भुत दर्शन प्राप्त होते।

जैसे जैसे नरेंद्र की आयु बड़ी उनकी मानसिकता में एक सुस्पष्ट परिवर्तन लक्षित हुआ, वे अब बौद्धिक कार्यों को प्राथमिकता देने लगे और उन्होंने पुस्तकों का अध्ययन प्रारंभ किया। वे नियमित रूप से अखबार पढ़ते तथा सार्वजनिक भाषण में उपस्थित रहते। जो कुछ वे सुनते, उसका सार अपनी मौलिक आलोचना के साथ अपने मित्रों को सुना कर उन्हें चमत्कृत करते। उन्होंने एक ऐसी तर्क शक्ति का विकास किया जिसका सामना कोई कर नहीं सकता था।

सन 1870 ईसवी में जबकि नरेंद्र तीसरी कक्षा के विद्यार्थी थे, उनके पिता मध्य प्रदेश के रायपुर नामक स्थान में गए। नरेंद्र को भी वहाँ जाना पड़ा। तब रायपुर में कोई स्कूल ना था। इससे नरेंद्र को अपने पिता के साथ अंतरंग रूप से परिचित होने का समय और अवसर प्राप्त हुआ। ये उनके लिए बड़े सौभाग्य की बात थी क्योंकि उनके पिता उदात् और सुसंस्कृत विचारों के थे।

विश्वनाथ दत्त ने अपने पुत्र की बुद्धि को अपनी ओर खींचा। वे उनके साथ घंटों ऐसे विषयों पर चर्चा करते जिनमें विचारों की गहराई सूक्ष्मता और सवस्थता होती। उन्होंने अपने पुत्र के हाथों बुद्धि की मुक्त लगाम दे दी। ये विश्वास करते हुए कि शिक्षा विचारों को लादने में नहीं है बल्कि सोचने की क्रिया को प्रेरणा देने में है।

विश्वनाथ के पास कई जाने माने विद्वान आया करते थे। नरेंद्र उनसे वार्तालाप सुनते और कभी कभी उनमें भाग भी लेते थे। इन दिनों उन्होंने चाहा यही नहीं बल्कि मांग की कि हर कोई उनकी बौद्धिकता को स्वीकार करें।

वे इस विषय में इतने महत्वकांक्षी थे कि यदि उनकी मानसिक शक्तियां को नहीं स्वीकार जाता, तो वे रूठ जाते और अपने गुस्से को छिपा कर ना रख पाते। पिता अवश्य पुत्र के ऐसे आवेगों को पसंद नहीं करते थे और ऊपर से उसकी भर्त्सना भी करते थे पर मन ही मन वे उसकी बौद्धिक प्रतिभा और आत्म सम्मान की भावना से गर्व का अनुभव करते।

विश्वनाथ दत्त अपने परिवार के साथ सन 1879 में कलकत्ता लौटे। नरेंद्र के स्कूल में भर्ती करने में कुछ कठिनाई हुई क्योंकि वे दो वर्ष अनुपस्थित रहे थे। पर उनके शिक्षक उनसे स्नेह करते थे। अतए उनके सामर्थ्य का स्मरण कर उन्होंने नरेंद्र के लिए एक अपवाद किया।स्कूल में प्रवेश लेकर नरेंद्र जी जान से पढ़ाई में लग गए। तीन वर्षों का पाठ्यक्रम उन्होंने एक ही वर्ष में पूरा कर लिया और कॉलेज प्रवेश परीक्षा में वे विशेष योग्यता के साथ उत्तीर्ण हुए।

 

इस अवधि में नरेंद्र ने ज्ञान के क्षेत्र में बड़ी उन्नति की जब वे एंट्रेंस कक्षा में थे तभी उन्होंने अंग्रेजी और बांग्ला साहित्य के प्रमुख मानक ग्रंथों पर अधिकार पा लिया था तथा इतिहास की कई किताबें पढ़ डाली थी। विशेषकर उन्होंने भारतीय इतिहास पर प्रामाणिक ग्रंथों का अच्छा खासा अध्ययन किया।

इन्हीं दिनों उन्हें पढ़ने की एक विशेष शक्ति प्राप्त हुई थी, जिसका वे इस प्रकार वर्णन करते हैं। ऐसा हुआ कि मैं किताब की समूची पंक्तियों को पढ़े बिना ही लेखक के मंतव्य को समझ लेता था। पैराग्राफ की केवल प्रथम और अंतिम पंक्तियों को पढ़कर मैं उसका पूरा मर्म जान लेता था।

ज्यों ज्यों इस शक्ति का विकास हुआ, पैराग्राफों को पढ़ना भी आवश्यक नहीं होता था। पृष्ठ की केवल पहली और आखिरी पंक्तियों को पढ़कर मैं उसके पूरे अर्थ को पकड़ लेता था।

यही क्यों? जब लेखक किसी बात को समझाने के लिए कोई विवेचन प्रारंभ करता और उसे उस विषय को स्पष्ट करने में चार या पांच या अधिक पृष्ठ लग जाते तो मैं केवल कुछ पंक्तियों को पढ़कर उसकी विचारधारा को भांप जाता था।

एंट्रेंस परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद नरेंद्र नाथ कॉलेज में प्रविष्ट हुए। पहले वे प्रेसिडेन्सी कॉलेज में पढ़ते रहे और बाद में स्कॉटिश जनरल मिशनरी बोर्ड द्वारा स्थापित जनरल असेंबली इन्स्टिट्यूशन में प्रवेश लिया।

कॉलेज में उन्होंने भारतीय और अंग्रेज प्रोफेसरों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया, जो उनकी विलक्षण बुद्धि को देखकर आश्चर्य चकित थे। प्रिन्सिपल डब्ल्यू डब्ल्यू हेस्टी ने एक बार कहा मैंने सुदूर देशों का भ्रमण किया है। पर अभी तक मुझे कहीं भी ऐसा लड़का नहीं मिला जिसमें नरेंद्र की प्रतिभा और संभावनाओं हो, वो जीवन में अवश्य अपनी छाप छोड़ेगा।

नरेंद्र ने केवल पाठ्यक्रम में ही अपने अध्ययन को सीमाबद्ध नहीं किया था। अपने कॉलेज जीवन के पहले दो वर्षों में उन्होंने पाश्चात्य तर्क शास्त्र के सभी प्रमाणिक ग्रंथों पर पूरी तरह अधिकार प्राप्त कर लिया तथा अपने तीसरे और चौथे वर्षो में उन्होंने अपने को पाश्चात्य दर्शन एवं यूरोप के विभिन्न राष्ट्रों के प्राचीन और अरवा चीन इतिहास के अध्ययन में लगा दिया। इस समस्त गंभीर के साथ ही नरेंद्र का एक दूसरा पक्ष भी था।

उन्हें आमोद प्रमोद में बड़ी रूचि थी और वह अपने को पूरे हृदय से उसमें लगा देते। वे सामाजिक वर्गों के प्राण थे। विलक्षण संभाषण पटुथे। वे मधुर गायक और समस्त निर्दोष कौतुक् में नेता थे। उनके बिना कोई भी आयोजन पूरा नहीं होता। वे व्यवहार में बड़े अनौपचारिक थे, इन्फॉर्मल थे और बहुत बार अपने तीक्षन व्यंगों के द्वारा संसार के दिखाबो और विडंबनाओं का ऐसा बखीया उधेड़ते की लगता कि वे रूखे और उदासीन हैं।

उनमें साहसिकता का भाव सदैव की ही भांति प्रबल था और वे किसी भी प्रकार की दुर्बलता को गंवारा नहीं कर सकते थे। पर उनके चरित्र की सबसे महत्वपूर्ण खूबी थी उनकी पवित्रता। उनके चरित्र में ऐसे बहुत अवसर आए जब अवांछनीय प्रसंग उपस्थित हो सकते थे।

पर ऐसे मौकों पर माँ का प्रभाव उनके लिए रक्षक बनकर आया। उनकी माता ने पवित्रता को ही अपने एवं परिवार के प्रति निष्ठा की कसौटी बनाया था। साथ ही ऐसा भी कुछ था जो उन्हें रोक लेता था। जैसा की उन्होंने बाद में कहा था उनके ऊपर से दिखने वाले मोजी। जीवन के अंतराल में वैराग्य की प्रवृत्ति विद्यमान थी।

जब उनके पिता उज्वल भविष्य का प्रलोभन देते हुए उन पर विवाह करने के लिए ज़ोर देने लगे तो उन्होंने विद्रोह किया और ये भी विचित्र है की जब भी उनके विवाह की बात ऊपर उठती तब किसी ना किसी प्रकार की अदृष्ट बाधा आ जाती और बात वही पर खत्म हो जाती।

 

श्री राम कृष्ण से भेंट।

हमने नरेंद्र की धार्मिक वृत्ति, देवी देवताओं के प्रति उनकी श्रद्धा और ध्यान की उनकी प्रवृति को कुछ देखा है, पर ज्यों ज्यों उनका बौद्धिक क्षतिज बढ़ता गया और वे पाश्चात्य दर्शन एवं विज्ञान के अधिकाधिक संपर्क में आते गए, उन्हें अपने लड़कपन के ईश्वर विश्वास एवं रूढ़ीगत विश्वास पर संदेह होने लगा।

धीरे धीरे उनकी शंकाओं और संदेहों ने एक बौद्धिक तूफान का रूप ले लिया, जिसके आलोणन से वे एक शुद्ध हो गए। उनमें विश्वास था, भक्ति थी पर इस भक्ति और विश्वास को सहारा देने के लिए उन्हें तर्क की आवश्यकता थी।

कभी कभी वे सोचते की जीवन में तर्क ही एकमात्र विश्वसनीय पथ प्रदर्शक है और वही चरम सत्ता की उपलब्धि तक मनुष्य को ले जा सकता है। पर ये भी स्पष्ट था कि निस्सार और निष्प्राण तर्क मनुष्य की भावनाओं को संतुष्ट नहीं कर सकता था। और ना वो उसे प्रलोभन और परीक्षा की घड़ियों में बचा सकता था।

जॉन स्टुअर्टमिल ह्यूम और हर्बर्ट स्पेनसर के अध्ययन ने उनके विचारों को पूरी तरह झकझोर दिया और धीरे धीरे उनकी कष्ट प्रदशंकाओं और संदेहों ने अनीश्वरवादी दर्शन का ठोस रूप ले लिया परन्तु यहाँ भी उनकी जन्मजात धार्मिक प्रवृत्ति ने उन्हें शांत ना बैठने दिया। वे अज्ञात को जानने के लिए आ तो रहने लगे। सत्य की अनुभूति के लिए उनके भीतर आकूलता दिखाई देने लगी।

इस समय बंगाल के युवा बौद्धिक जनों पर प्रसिद्ध ब्रह्म समाजी नेता केशव चंद्र सेन का बड़ा प्रभाव था। नरेंद्र नाथ भी केशव चंद्र सेन के व्याख्यानों और लेखो से मुग्ध हो गए।

ब्रह्म आंदोलन में उनकी रुचि जागी और वे साधारण ब्रह्म समाज के सदस्य बन गए। ब्रह्म आंदोलन सनातन हिंदू धर्म की कतिपय रूढ़ियों और सिद्धांतों का विरोध करता था जैसे बहुदेववाद मूर्ति पूजा, अवतार वाद और गुरु का प्रयोजन। उसने एकेश्वरवादी धर्म को मान्यता दी, जो उपयुक्त सिद्धांतों का खंडन करता था।

सामाजिक स्तर पर भी उसने सुधार के आंदोलन चलाये, जिनमें प्रमुख थे वर्ण, भेद और जातिवाद को तोड़ना, मनुष्य की समानता को पहचानना, नारी की शिक्षा और उनका स्वतंत्र इत्यादि।

अतः आश्चर्य नहीं है कि इस आंदोलन ने तरुण बंगाल के मन को मुग्ध कर लिया। नरेंद्र ब्रह्म समाज को एक ऐसी आदर्श संस्था मानने लगे जहाँ जीवन की सभी समस्याएं व्यक्तिगत हो या राष्ट्रीय हल की जा सकती हैं।

उन्हें जाति भेद की कट्टरता बिल्कुल ही पसंद न थी और उन्हें बहु देववाद एवं मूर्ति पूजा के प्रति भी कोई सहानुभूति नहीं थी। वे पूरी लगन से अपने मनोगत भावों को प्रकट करने लगे और ब्रह्म नेताओं के समान ही समाज की प्रचलित विचारधारा के कायल हो गए।

कुछ समय तक ब्रह्म समाज का बौद्धिक वातावरण उन्हें संतुष्ट करता रहा। प्रार्थना और भजन के समय वे अपने को उच्च भाव में आरुढ़ हुआ पाते। पर अब उन्हें ऐसी प्रतीति होने लगी कि यदि ईश्वर का अनुभव ही करना है, तब तो वे वहीं पर स्थित है, जहाँ समाज में आने से पहले थे। वे लक्ष्य के अधिक समीप नहीं जा पाए हैं। दर्शन और वेद उस अनिवचनीय सत्ता को बताने के प्रयास के अलावा और क्या है? यदि वे भगवान के चरणों के समीप मनुष्य को नहीं ला पाते तो उनकी भला क्या उपयोगिता है?

सत्य को जानने की तीव्र आकांक्षा से वे ब्रह्म नेता महर्षि देवेंद्र नाथ ठाकुर के पास गए, जो बहुतों के द्वारा एक श्रेष्ठ आध्यात्मिक उपदेशक माने जाते थे। जब वो 1 दिन उत्तेजना से युक्त हो, महर्षि के पास पहुंचे और उनसे पूछा, महाशय क्या आपने ईश्वर को देखा है? तो महर्षि यह प्रश्न सुन कर अचकचा गए।

अपनी आध्यात्मिक जिज्ञासा से उन्मत से होकर नरेंद्र नाथ दूसरे संप्रदायों के नेताओं के पास भी गए पर कोई भी उन्हें संतुष्ट ना कर सका। नरेंद्र नाथ जब इस मानसिक पीड़ा का भोग कर रहे थे क्योंकि हिंदू धर्म पर से उनका विश्वास उठ चुका था और वे अपने ही वैचारिक संघर्ष के शिकार हो गए थे तो कलकत्ता के उत्तर में चार मील की दूरी पर एक ऐसा व्यक्ति रहता था जिसे लोग श्री राम कृष्ण के नाम से जानते थे और जिनका जीवन एक निरंतर अध्यात्मिक आनंद का मूर्त विग्रह था।

श्री रामकृष्ण का जीवन नरेंद्र नाथ के जीवन के बिलकुल विपरीत था। श्री रामकृष्णा का जन्म हुगली जिले के एक छोटे से गांव में एक निर्धन नैष्ठिक ब्राह्मण परिवार में हुआ था वो गांव ऐसा था जहाँ पाश्चात्य सभ्यता की कोई किरण नहीं पहुँच सकी थी। उन्हें भौतिक शिक्षा नहीं सी मिली थी और उन्होंने अपना जीवन दक्षिणेश्वर के काली मंदिर में एक पुजारी के रूप में शुरू किया था। अपनी लगन और तीव्र साधना से उन्होंने जल्दी ही काली की मूर्ति में चैतन्य सत्ता का अनुभव किया।

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